कविता - अपनी अपनी परेशानी, अपना अपना राग
सभी के जीवन में
कोई ना कोई परेशानी,
फफोले की तरह बनती है
मिटती जाती है,
पर सभी को अपनी परेशानी
बड़ी लगती है, पहाड़ की तरह
महिला कहती है मैं दुखी,
पुरुष कहता है मैं दुखी,
नौकरी वाले कहें, सबसे अधिक हम दुखी
घर, कर्मस्थल सभी में सामंजस्य करना,
बेरोजगार कहें हम दुखी
सभी आवश्यकता बिना पैसे
कैसे करें पूरी,
व्यापारी कहें हम दुखी
व्यापार में कोई स्थिरता नहीं
कभी नफा कभी नुकसान,
प्रशासन कहे हम दुखी
कभी जनता, कभी सरकार,
गरीब कहें हम दुखी
हमारे बच्चे भूखे
खपे हम दूसरों के लिए,
बच्चे कहें हम दुखी
हम कर सकते मनमर्जी नहीं,
युवा कहें हम दुखी
मां-बाप चलते
हमारे अनुसार नहीं,
बुड्डे कहें हम दुखी
हमारी कोई सुनता नहीं,
दुनिया में ये कोई कहता नहीं
कि 'हम तो भई पूरे सुखी' ।